हमारी परम्परा और रीति रिवाज...


     परम्परा और रीति रिवाज हमारे जीवन को कुछ नियमों में बांध देती है। अगर ये कहे कि परम्परा समाज के नियम है तो गलत नहीं होगा। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जन्म होते ही वह इन नियमों से बंध जाता है और बिना सोचे समझे इनका अंधा अनुसरण करने लगता है।



      हमारे बड़े बुजुर्गों ने समाज की व्यवस्था बनाये रखने के लिए नियम और रीति रिवाज बनाए है। हो सकता है ये परंपरा उनके समय के अनुकूल हो पर ये आवश्यक नहीं है कि वर्तमान समय में भी अनुकूल ही हो। क्योंकि संसार में हर क्षण परिवर्तन होता है। समय चक्र कभी नहीं रुकता और हर क्षण परिस्थिति बदलती रहती है। क्या आपने कभी ये विचार किया है कि जिन परंपरा का आप जन्म से अनुसरण कर रहे है। क्या वह सही है? क्या वह आपक उचित मार्ग दर्शन कर रहा है?

      मेरे हिसाब से कभी हाँ तो कभी न। हाँ इसलिए क्योंकि रीति रिवाज समाज कि व्यवस्था नियम और उसकी संकृति होती है। जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति को एक ही नियमों में बांधे रखती है लेकिन ऐसा हमेशा नहीं रहता, इसलिए न भी। उदाहरण के लिए जब कोई व्यक्ति समाज के नियमों के विरुद्ध कार्य करता है तो भले ही वह कार्य नैतिक दृष्टि से उचित हो फिर भी समाज के लोग उसका विरोध करने लगते है। जो बिलकुल भी उचित नहीं है क्योंकि समाज के ये नियम मनुष्य ने ही बनाए है इसलिए इन नियमों मे इतनी ही कठोराता होनी चाहिए जब तक यह किसी व्यक्ति के अधिकारों का हनन न करें उसके नैतिक कार्यों के लिए दंडित न करें। परंतु जब यह नियम दूषित भोजन के जैसे लोगों का स्वास्थ्य बिगाड़ने लगे तो इस दूषित भोजन को त्याग देना चाहिए।

        समय और परिस्थितियो के अनुसार परम्पराओं और हमारी सोच में परवर्तन होना आवश्यक है। अन्यथा ये परिवर्तन आपकी सोच को नहीं बदल पाया तो वो आपका स्थान उन लोगों से परिवर्तन कर देगा जिनकी सोच परिस्थितियों के अनुकूल है। इसलिए परंपरा में वही उचित है जो नैतिक दृष्टि से भी उचित हो।  

      कोई भी कार्य या निर्णय समाज की परम्पराओं और नियमों के स्थान पर उचित आदर्शों और नैतिक दृष्टिकोण से सही और गलत के आधार पर करना ही करना उचित होता है। 




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